वेद भारतीय संस्कृति,ज्ञान -विज्ञान तथा आचरण के मूलस्रोत हैं , — ‘ वेदाः स्थानानि विद्यानाम्’ विश्व में व्याप्त ज्ञान- विज्ञान की विभिन्न सरिता शाखाएँ इन्हीं से निकलकर सम्पूर्ण विश्व में प्रसरित होती हैं |समस्त वैश्विक वाङ्मय में वेदों का स्थान प्रथम एवं मुख्य है |
इस अनुपम वैदिक शब्दराशि को ऋषियों ने साक्षात्कार किया है, अतः वे ऋषि कहे जाते हैं, -‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः’ मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने अपने शिष्यों को श्रुतिपरम्परा से वेदों को पढाया, अतः वेदों को श्रुति भी कहते हैं | भारतीय अग्रजन्मा मनीषियों ने सम्पूर्ण मानव सभ्यता की अनुग्राहक मन्त्रब्राह्मणात्मक – अपौरुषेय शब्दराशि, वेद को श्रुतिपरम्परा से अपने कण्ठों में धारण किया, तथा चिरकाल तक इसी गुरुमुखोच्चारणानुच्चारण परम्परा से वेदों की रक्षा की | महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में ऋग्वेद की 21, सामवेद की 1000 हजार, यजुर्वेद की 101 तथा अथर्वेद की 9 शाखाओं का उल्लेख किया है, परन्तु सम्प्रति ऋग्वेद की दो, सामवेद की तीन, यजुर्वेद की ( कृष्णयजुर्वेद + शुक्लयजुर्वेद) पांच तथा अथर्वेद की दो शाखाएँ ही उपलब्ध हैं |
वर्तमान में उपलब्ध वेदशाखाओं के संरक्षण, संवर्धन एवं वैदिक ज्ञान- विज्ञान के अमृतत्व को समाज एवं विश्वपटल पर प्रस्तुत करने के लिए भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अन्तर्गत महर्षि सान्दीपनि वेदविद्या प्रतिष्ठान उज्जैन की स्थापना की गई है, जो कि वेदपाठशालाओं, वैदिक गुरुकुलों, वेदसंगोष्ठियों तथा वैदिक सम्मेलनों के माध्यम से अत्यंत सक्रिय रूप से अहर्निश कार्य कर रहा है |
उपरोक्त के अन्तर्गत इस वर्ष अखिल भारतीय वैदिक सम्मेलन के आयोजन हेतु देवभूमि उत्तराखंड के प्रवेश द्वार हरिद्वार में स्थित वेदस्थली शोध संस्थान एवं श्री महेशानन्द साङ्गवेद संस्कृत विद्यालय सुरतगिरि बंगला कनखल को प्राप्त हुआ है| जिसमें सम्पूर्ण भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में वेद के मूर्धन्य वेदमूर्ति का आगमन हो रहा है तथा उनके मुखारविन्द से वेदराशि को सुनकर अपने जीवन को धन्य कर सकेंगे |